कहानी शुरू होती है साल 1940 में अपु ( अपूर्व राय ) इंटरमीडिएट विज्ञान विषय में पढ़ाई पूरी कर चुका है एक बेरोजगार है,वो आगे की पढ़ाई अपने आर्थिक स्थिति ठीक ना होने के कारण करने में असमर्थ है,वो नौकरी की तलाश में रहता है और मुश्किल से निजी ट्यूशन देकर कुछ पैसे कमा पाता है, वो एक उपन्यास लिखना चाहता है,जो कि उसके ही जीवन पर आधारित है, वह चाहता है कि एक दिन यह प्रकाशित हो।वो अपने दोस्त के बहन की शादी मे जाता। जहां पता चलता है कि दूल्हे का दिमागी हालत ठीक नहीं है और वे जान कर लड़की की मां शादी तोड़ देती है। उस गांव की रीति रिवाज का मतलब दुल्हन की शादी इस शुभ मुहूर्त पर की जानी चाहिए नहीं तो उसे जिंदगी भर रहना पड़ेगा कुछ गांव वाले के अनुरोध और अपने दोस्त पुलू के कहने पर वह आख़िरकार उसकी बहन से उसी मुहूर्त पर शादी कर लेता है। वो अपर्णा के साथ शादी के बाद कलकत्ता लौट आता है। वह एक लिपिक की नौकरी करता है , इसी बीच इन दोनों में प्यार हो जाता है लेकिन दुर्भाग्यवश अपर्णा बच्चे को जन्म देते समय मर जाती है।
अपू फिर से एक बार अकेले पड़ जाता है और अपनी पत्नी की मौत के लिए बच्चे को जिम्मेदार मानता है। उसका इस सांसारिक जिम्मेदारियों से मोह भंग हो जाता और एक वैरागी बन भारत के विभिन्न कोनों की यात्रा करना प्रारंभ करता है जबकि बच्चे को उसके नाना-नानी के पास छोड़ देता है। वो अपने उस उपन्यास की लिखी उन पांडुलिपि को भी फेंक देता है जो वह सालों से लिख रहा था। अपु का दोस्त पुलु ने काजल को अच्छी हालत में नही देखता है तो वो अपू को ढूंढना शुरू करता है, जो एक खदान में काम करते मिलता है और वो अपने दोस्त को पिता की जिम्मेदारी उठाने की सलाह देता है। अपने दोस्त की बात मान, अपू वापस आने और अपने बच्चे के साथ रहने का फैसला करता है। जब वह अपने ससुराल पहुंचता है तो पहली बार उसे देखकर काजल पहले तो उसे पिता के रूप में स्वीकार करने से झिझकती है। धीरे धीरे उन दोनों के बीच पिता पुत्र का रिश्ता कायम होता है और वे जीवन को नए सिरे से शुरू करने के लिए एक साथ कलकत्ता लौट आते हैं।
1959 में आई फ़िल्म अपूर संसार ने दुनियाभर में भारतीय फ़िल्म इंडस्ट्री को एक अलग ही नज़रिए से देखने को मजबूर किया। दुनियाभर में भारतीय फ़िल्मो की तारीफ़ होने लगी। इस साल इस फ़िल्म ने 1960 के लंदन फिल्म फेस्ट में बेस्ट ओरिजनल फ़िल्म का खिताब जीता। सत्यजीत रे इंडियन फ़िल्म इंडस्ट्री के उन महान निर्देशकों में जाने जाते है, जिनकी फ़िल्मो के उदाहरण आज भी पेश किए जाते है। सत्यजीत रे की ज़्यादातर फ़िल्मो ने इतिहास में जगह बनाई है, पाथेर पांचाली, अपराजितो और अपूर संसार जैसी फ़िल्मो ने उन्हें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्धी दिलाई. और इसी के साथ ही भारतीय सिनेमा ने भी विश्व सिनेमा पर अपनी दस्तक दी।